जब मैं पूछता हूँ कि मैं कौन हूँ ? तब भी सवाल एक नहीं दो पैदा हो जाते हैं। एक ख़ोज अपने भीतर की जो ले जाती है अनंत की ओर। जिसे नित्यनेम में फ़रमाया गया है, “ग-गति हो वेग से, अति लगे न देर। दर्शन पाऊँ तेरा मैं हो जीवन की सवेर।।
हमारा हर कदम पानी की तरह ‘उस’ समुन्द्र की ओर ही जाता है।
दूसरा यह सवाल अमूमन हमें ले जाता है अहंकार की अँधेरी गली की तरफ। कि मैं ! मैं की ख़ोज है, जिज्ञासा है, कोई उलझन है या पेचीदा सवाल तब तक तो ठीक है। जब मैं में तीखापन आ जाए या गरूर की मद्धम सी भी बू आ जाए तो जीवन किसी गड्डे में बदबू देते कीचड़ में बदल जाता है।
ऐसे ही होता है गुरु होने का अहंकार। या शायद इससे बूरा। जो कहता है, “दर्शन पाऊँ तेरा मैं हो जीवन की सवेर” क्या उससे वो शख्स अलग है जो गुरु कहलाता या जिसे हम गुरु कहते हैं ? क्या गुरु होने से हमारा शरीर वो हवा, पानी लेना छोड़ देता है जिसे शिष्य {?} लोग ले रहे हैं ?
नित्यनेम में एक और जगह अंकित है, “सुनीत का अर्थ विवेक है, बनूँ विवेकी नाथ।” ये सम्बोधन किससे है ? किसी और से नहीं उस आदिकवि, आदि गुरु, आदि-योगेश्वर, सृष्टिकर्ता, सृजक त्रिलोकीनाथ वाल्मीकि दयावान से ही है। उसे वल्लाह कहें या वाहेगुरु, या कहो खुदा या कहे रब परमेश्वर वही है और गुरु भी।
आदि-नित्यनेम में आगे कहा गया है, “तेरे दरबार में सब है सामना, शेर बकरी एक घाट पिलाना।” हम सभी बराबर हैं उस आदि-गुरु के आगे। बस कुछ ज्ञान अर्जित कर उस ज्ञान को कहने समझाने की कला सीख लेते हैं। इस कला को साहित्य में कहते हैं ‘अभिव्यक्त’
हाँ यह जरूर है कि ज्ञान और अभिव्यक्ति सहज नहीं मिलते। किसी के पास ज्ञान होता है मगर अभिव्यक्ति नहीं होती और किसी के पास मदारी की तरह अभिव्यक्ति होती है मगर ज्ञान नहीं। ज्ञान का अर्थ जानकारी होना ही नहीं है। इसे ऐसे समझ लें, “अधभर गगरी छलकत जाए”
ज्ञान एक समझ है, एक अनुभव है। ज्ञान हमें सम्पूर्णता की तरफ ले जाता है और ज्ञान हमें ले जाता है विनम्रता की ओर। विनम्रता या सहज होना ज्ञान के प्रतीक हैं। ज्ञान से ज्ञानी हो सकते हैं गुरु नहीं। गुरु वही है जो सबका मालिक है। हम हो जाते हैं सन्देश वाहक, Messenger, एक Post-Man या धर्म-दूत।
आप सभी को उस सृजक जिसे हम कहते हैं, “विश्वात्मा लोकपाल मनन अंदर वास तेरा” मनन क्या है ? मनन होता है अनुभव, चिन्तन और संघर्ष के बाद प्राप्त ज्ञान। यानि हम सभी ज्ञान प्राप्त करते हैं आदि-गुरु आदिकवि से तो हम गुरु कैसे ?
आप सभी को विश्वेश्वर परमेश्वर वाल्मीकि गुरु पूर्णिमा की हार्दिक बधाई !
क्रांति दूत, तार्किक, बीच बाज़ार में बेबाकी लिए लाठी हाथ में लिए खड़े कबीर के इन शब्दों से अपनी बात सम्पूर्ण करते हैं……….
साहिब मेरा एक है, दुजः कहा न जाए।
दुजः साहिब जो कहूं, साहिब खड़ा रसाई।।